Opinion- मोदी का जलवा बरकरार तो फिर बीजेपी के बहुमत पर संकट क्यों? ये बातें बहुत गहरी हैं

अगर 2024 का लोकसभा चुनाव तीन चरणों का मैराथन था, तो पहला चरण समाप्त हो चुका है। 19 राज्यों में फैली 189 सीटों पर मतदान हो चुका है। अब तक राष्ट्रीय स्तर पर क्या अनुमान लगाया जा सकता है? हमें दो मैक्रो ट्रेंड के सबूत देखने को मिल रहे हैं।
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अगर 2024 का लोकसभा चुनाव तीन चरणों का मैराथन था, तो पहला चरण समाप्त हो चुका है। 19 राज्यों में फैली 189 सीटों पर मतदान हो चुका है। अब तक राष्ट्रीय स्तर पर क्या अनुमान लगाया जा सकता है? हमें दो मैक्रो ट्रेंड के सबूत देखने को मिल रहे हैं।
➤ एक, साफ हो गया है कि वोटिंग प्रतिशत में गिरावट आई है, जो पिछले चुनाव की तुलना में एक महत्वपूर्ण घाटा है। अधिकांश राज्यों में गिरावट 5% से 10% के बीच रही है।

➤ दूसरा रुझान यह है कि कम से कम पिछले दो चुनावों को याद करें तो इस बार मतदाताओं में उत्साह की कमी है। चुनाव प्रचार का शोर कम है तो गलियों में चुनावी नारे भी कम सुनाई पड़ रहे हैं।

सीएसडीएस-लोकनीति के चुनाव पूर्व सर्वेक्षण ने कुछ हद तक विरोधाभासी तस्वीर पेश की है। सर्वेक्षण के अनुसार, बीजेपी नीत गठबंधन एनडीए को पिछले चुनावों में मिला वोट शेयर इस बार भी बरकरार रहेगा। हालांकि, 2019 के चुनावों में जितने लोग मोदी सरकार की वापसी चाहते थे, उतने अब नहीं चाहते। यानी, अब ज्यादा लोगों में सरकार बदलने की भावना है।

क्या कम मतदान भी सर्वेक्षण के इसी परिणाम का समर्थन करते हैं? केवल मतदान के आंकड़ों के आधार पर कोई पूर्वानुमान लगाना उचित नहीं। सच बात तो यह है कि बूथ स्तर के विस्तृत आंकड़ों के बिना कोई भी किसी विशेष सीट के लिए उचित पूर्वानुमान भी नहीं लगा सकता है।

फिर भी अलग-अलग आधार से एक आकलन तो पेश किया जा ही सकता है। अब तक के मतदान से इतना तो साफ हो गया है कि इस बार कोई लहर नहीं है। यह साफ हो चुका है कि अब तक किसी भी मुद्दे पर मतदाताओं के बीच ध्रुवीकरण नहीं हो पाया है। दूसरी तरफ, किसी चेहरे के इर्द-गिर्द क्षेत्र-राज्य या जाति-समुदाय के आधार पर कोई विभाजन नहीं हुआ है। कुल मिलाकर, यह एनडीए के लिए बहुमत के आंकड़े को आसानी से पार करने की संभावनाओं की दृष्टि से चिंताजनक आकलन है।

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पहली बात, भाजपा की बहुमत की संभावनाएं इस बात पर निर्भर करती हैं कि पार्टी का राष्ट्रीय नेतृत्व चुनाव प्रचार को एक खास दिशा देने में कितनी सफल रहता है। मोदी लहर वाले पिछले दो आम चुनावों में मोदी के प्रचार अभियान ने भाजपा के रथ को आगे बढ़ाया। सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे के अनुसार, जिन मतदाताओं ने प्रधानमंत्री उम्मीदवार को ध्यान में रखकर वोट किया, उनमें दो-तिहाई ने बीजेपी का समर्थन किया। इस चुनाव में भी पीएम पद के लिए मोदी और (अगले प्रतिद्वंद्वी) राहुल के बीच वरीयता का अंतर बहुत ज्यादा है। सीएसडीएस-लोकनीति सर्वे की ताजा रिपोर्ट के अनुसार नरेंद्र मोदी को 48% लोग फिर से प्रधानमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं जबकि सिर्फ 27% लोगों की राय है कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए।

पिछले महीने भाजपा ने मोदी के चेहरे की बढ़त के साथ 'राम मंदिर', 'ताकतवर होता भारत' और 'मोदी की गारंटी' के दम पर प्रचार अभियान को आगे बढ़ाया। पार्टी ने इसी मकसद को 2014 में 'अच्छे दिन' और 2019 में 'बालाकोट एयर स्ट्राइक' जैसे मुद्दों के जरिए साधा था। इन सभी तरकीबों ने काफी लोकप्रियता हासिल की है, लेकिन इससे कोई व्यापक विमर्श खड़ा नहीं हो पाया। ये मुद्दे अलग-अलग निर्वाचन क्षेत्रों में बदलते रहे। इससे पता चलता है कि बीजेपी ने कांग्रेस के घोषणा पत्र में शामिल एजेंडे पर पूरा फोकस नहीं रखा। इस कारण, राज्यों में चुनावी खींचतान का रुख राष्ट्रीय मिजाज से अपेक्षाकृत अलग रहा है। चुनावी पिच राज्य स्तरीय मुद्दों, जाति-समुदाय की चिंताओं और निर्वाचन क्षेत्र आधारित विमर्शों से अधिक परिभाषित होती है।

चेतावनी: हालांकि, जरूरी नहीं कि बेरोजगारी, महंगाई जैसे विपक्षी दलों के मुद्दों पर लड़ा जा रहा है बल्कि यह बहुत कुछ राज्य विशेष के मुद्दों और उनके जाति-समुदाय के समीकरणों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, किसान संकट और मराठा कोटा आंदोलन मराठवाड़ा में विपक्षी एमवीए को सूट करते हैं तो कानून-व्यवस्था की अपील पश्चिमी यूपी में सपा के सामाजिक न्याय के मुद्दे को कुंद करती है जिससे बीजेपी बमबम है। 'अबकी बार, 400 पार' के नारे ने हिंदी पट्टी के दलितों को उहापोह में डाल दिया है, लेकिन इससे सवर्णों और पिछड़ी जातियों का जोश हाई हो गया है। एनडीए बिहार और आंध्र प्रदेश में तो दृढ़ता से आगे बढ़ रहा है, लेकिन कर्नाटक और महाराष्ट्र में अस्थिरता का अहसास हो रहा है। ऐसे में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि 'क्षेत्रीय' या 'स्थानीय रूप से' तैयार चुनावी मैदान में विरोधी टीम कम से कम प्रतिस्पर्धा के स्तर पर पहुंच जाती है।

दूसरी बात यह है कि पूर्वी और दक्षिणी भारत के बड़े हिस्से को छोड़कर भाजपा का दबदबा अभी भी सीमित है। इसलिए उस पर कुछ प्रमुख राज्यों में समर्थन खोने का क्या खतरा मंडराता रहता है। इसलिए बीजेपी को फिर से एकतरफा बहुमत हासिल करना है तो उसे दबदबे वाले इन राज्यों में अपना प्रदर्शन दोहराने की सख्त जरूरत होगी। तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में बीजेपी के कम जनाधार का मतलब है कि इन सभी राज्यों में अगर वोट शेयर में जबर्दस्त वृद्धि हो भी गई तो भी उसे एकाध सीटें ही हासिल होने की संभावना बनेगी। 2014 से पहले बीजेपी ने अधिकतम 182 लोकसभा सीटें जीतने का रिकॉर्ड बनाया था। उसने बहुमत का आंकड़ा तभी पार किया जब मोदी लहर का जादू चल सका।

चेतावनी: फिर भी, भाजपा का सपोर्ट बेस काफी मजबूत है। पिछली बार इसने 43% सीटों पर बहुमत हासिल किया था, इसलिए अगर उसके कुछ वोट कम भी गए तो सीटों के मामले में कोई नुकसान शायद ही हो।

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जैसा कि राजनीतिक वैज्ञानिक फिलिप ओल्डेनबर्ग ने बताया है, 90 के दशक के बाद भारतीय राजनीति में बड़े बदलाव हुए जिसके असर से चुनावों में राष्ट्रीय स्तर पर एकतरफा लहर बनने के चलन का अंत हो गया। क्षेत्रीय दलों के उभार ने राज्य स्तर पर राष्ट्रीय विमर्शों की धार कुंद कर दी और प्रादेशिक मुद्दों को आवाज मिलने लगी। ऊपर से जातीय अस्मिता की लड़ाई को भी चुनावों का आधार बना दिया गया। ऐसा तीन दशकों तक चला, लेकिन 2014 में लगातार दो बाप मोदी लहर ने इतिहास की धारा को पलट दिया और राष्ट्रीय राजनीति को फिर से केंद्र में ला दिया। हालांकि, आज भी राष्ट्रीय स्तर पर छा जाने योग्य कोई मुद्दा गढ़ पाना लोहे के चने चबाने जैसा है।

इसके अलावा, एनडीए का लगातार दो हार से त्रस्त विपक्ष से मुकाबला है। पिछले कुछ हफ्तों में अलायंस को-ऑर्डिनेशन और विपक्षी इंडी गठबंधन अपने प्रचार अभियानों में सावधानियां बरतने लगा है। जिन इलाकों में कांग्रेस कमजोर है, वह वहां से अपने पैर पीछे खींचने लगी है। उम्मीद है कि वह इतिहास में सबसे कम सीटों (अंतिम नामांकन के बाद लगभग 330) पर चुनाव लड़ेगी। उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में गांधी परिवार की अगुवाई वाली कुछ रैलियों को छोड़कर कांग्रेस ने सपा के नेतृत्व वाले 'पिछड़े जाति' केंद्रित अभियान के लिए लगभग पूरा मैदान खुला छोड़ दिया है।

दूसरी तरफ, देश में जाति जनगणना और डायरेक्ट ट्रांसफर के इर्द-गिर्द राजनीतिक संदेश देने का चलन आ गया है।

तीसरा, विपक्षी पार्टी के वरिष्ठ नेता आमतौर पर प्रधानमंत्री पर व्यक्तिगत हमलों से बचते रहे हैं और सरकार के प्रदर्शन पर ही ध्यान केंद्रित करते रहे हैं।

हालांकि भाजपा अभी भी साफतौर पर मतदाताओं की पसंद बनी हुई है, लेकिन इस बार का चुनाव लहर के बजाय 'सामान्य' प्रतिस्पर्धी राजनीति की ओर झुका दिख रहा है। यह भी सही है कि इसे राज्य/क्षेत्र और जाति/समुदाय के विभिन्न गुरुत्वाकर्षण बल अपनी ओर खींचने में लगे हैं।

लेखक एक राजनीतिक शोधकर्ता हैं।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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